द्रोहकाल पुलिस के एक अलग तरह के संघर्ष से दर्शको का परिचय करवाती है। वैसे ऐसे विषयों को गोविंद जी तरजीह देते है और 1980 के दशक में आई इनकी फिल्म अर्धसत्य ने तहलका मचा दिया था, जिसको आज भी भारतीय सिनेमा की दिशा बदल कर रख देने वाली फिल्म के तौर पर याद किया जाता है। फिल्म पुलिस और उग्रवादियों की गुथमगुत्था की एक नयी दास्ताँ पेश करती है और उस समय के हिसाब से काफी आगे की फिल्म लगती है, जो बात गोविंद निहलानी द्वारा निर्देशित कई फिल्मो पर कही जा सकती है।
फिल्म का आगाज़ होता है अभय सिंह (ओम पुरी) और अब्बास लोधी (नसीरुद्दीन शाह) द्वारा ऑपेरशन धनुष के गठन से अंतर्गत एक प्रमुख उग्रवादी संगठन में 2 पुलिसिये मुखबिर आनंद (मनोज बाजपाई) और शिव (मिलिंद गुणाजी) को प्लांट करने से। उग्रवादियों की ताकत को कम आंकने की वजह से धीरे-धीरे उनकी मुश्किलें बढ़ती है जो उनके निजी जीवन को भी प्रभावित करने लगती है। आनंद कुछ वर्षो बाद उग्रवादियों द्वारा पकड़ लिया जाता है पर वो उन्हें कुछ पता चलने से पहले ही आत्महत्या कर लेता है जिस से शिव का राज़ बचा रहता है। शिव के प्रयासों से गुट का मुखिया भद्रा (आशीष विध्यार्थी) पकड़ा जाता है जिसके बावजूद पुलिस को विफलतायें मिलती रहती है। तब उग्रवादी गुट पुलिस स्पेशल सेल में सेंध लगाने की कोशिश करते है जो रहस्य और मानवीय विवशताओं का नया आइना दिखाती है।
द्रोहकाल के सबसे मज़बूत पक्ष है उसकी दमदार कास्टिंग और निर्देशन, कई दृश्यों को जीवंत सा करते कैमरा एंगल्स और सेट्स। फिल्म के केंद्र में है ओम पुरी (जो गोविंद की पसंद रहें है और अक्सर उनकी फिल्मो में दिखते है) जिनका अभिनय वास्तविक और किरदार अनुरूप है, उनके बाद मीता वशिष्ठ को काफी फुटेज मिली जिसको सार्थक किया उन्होंने , कहानी के मुख्य प्लाट से वो अलग रही पर अभय सिंह के निजी जीवन की झलकियों में वो ओम पुरी पर भारी दिखी। अंत में अन्नु कपूर के साथ उनका दृश्य रोंगटे खड़े वाला है। आशीष विध्यार्थी ने कमाल का नपा तुला काम किया है, कुछ जगह उनके संवाद मज़ा बढ़ा देते है। । नसीरुद्दीन शाह, अमरीश पुरी, अन्नु कपूर प्रभावित करते है हालांकि मिलिंद गुणाजी ने थोड़ा निराश किया। गोविंद जी की ख़ास बात यह है की वो समानांतर और मुख्यधारा सिनेमा के बीच में सक्रीय रहकर किसी दक्ष शिल्पी की तरह ऐसी फिल्मो का निर्माण करते है जिसे दोनों तरह के दर्शक वर्ग देख-समझ सकते है और लुत्फ़ उठा सकते है। ऊपर से उनका करियर भी काफी लम्बा रहा जो अभी तक जारी है, वैसे देव (2004) के बाद उनकी कोई फिल्म नहीं आई है पर वो अभी भी सक्रीय है जो एक अच्छा संकेत है।
फिल्म के नकारात्मक पहलुओं में पहले तो कहानी में संघर्ष को और गहरा करते एंगल्स की कमी है खासकर जब विषय इतना संवेदनशील है। उग्रवाद से जुड़ा सब कुछ सीधी रेखा पर चलता सा दिखता है। एडिटिंग में भी कुछ जगह खामियां दिखती है। कुछ अदाकारों को और कैमरा टाइम दिया जा सकता था बिना फिल्म का समय बढ़ाये। ओवरआल अर्ध सत्य से तो तुलना करना बेमानी होगा पर फिर भी एक अच्छा प्रयास कहूँगा, द्रोहकाल को मैं 7/10 रेट करूँगा।
421 Brand Beedi Grade: B+
- मोहित शर्मा (ज़हन)
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